सच तो यह है तुम्हारी खता ही नही।अब ज़माने में नामें वफ़ा ही नही







पत्रकार अय्यूब खान

बिसवां सीतापुर मौत वो है करे जिसपे ज़माना अफसोस यू तो दुनिया में सभी आये है मरने के लिए।बिसवां की धरती ने कई महा पुरुषों को जन्म दिया जिनमे हज़रत फारूक आज़म समर बिसवानी मरहूम का एक अलग स्थान हैं। जिनकी आज पुण्य तिथि है।मरहूम बिसवानी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मौलाना हिदायत अली बिसवानी के पुत्र थे इनका जन्म एक अगस्त 1942 को बिसवां में हुआ था इन्होंने लखनऊ विश्विद्यालय से बी.ए एवं एल.एल.बी. की पढ़ाई पूरी करने के बाद बिसवां में अधिवक्ता के रूप में कार्य करने लगें। मरहूम ने शायरी की कोई ऐसी सनफ शुखन नही छोड़ी जिसमें तबा आज़माइश न की हो इनकी गजले गीत कतात नजमे  नात पाक वगैरह में उनका आला मुकाम है।उनका घराना अदबी समाजी व फाने शायरी में माहिर था इनके दादा आजम बिसवानी बिसवां के पहले शायर थे।मरहूम बिसवानी ने 10 साल की अल्पायु में ही जिगर बिस्वानी के शिष्य बने। ये हिंदुस्तान के अधिकतर मुशायरों में शिरकत करते रहते थे इनकी गजलें रेडियो टीवी चैनल पत्र-पत्रिकाओं की शोभा बढ़ाते थे। इनका मिजाज इंसाफ पसंद और हुकूमते वक्त से हक बातें कहने से नहीं डरते थे।




इनका यह शेर इस बात की नक्काशी करता है।

 लोहों कलम भी वक्त भी सब आप ही का है। मर्जी है मुझको राम कि रावण बनाइये।

देश प्रेम भी इनमें कूट कूट के भरा हुआ था उनका यह शेर इस प्रकार है।

ये रौनक ए गुलजार वतन बढ़कर रहेगी गुलशन को अब हम खूने जिगर देखकर रहेंगे।

शायरी इश्क और मोहब्बत की जुबान है। जो मरहूम के इस शहर में झलकती है।तेरे दामन के तलबगार तुझे छेड़ेगें गुल अगर चुप भी रहे ख़ार तुझे छेड़ेगें 


मरहूम कई किताबों के लेखक थे जिनमें अफकर मुहानी फिक्र फन आईने नज्म उर्दू रूहे निषाद कौमी एकता पर आधारित पुस्तक एकता का चमन त्योहारों के फूल जिस पर राज्य साहित्य पुरस्कार तत्कालीन म०राज्यपाल उत्तर प्रदेश अकबर अली खान द्वारा दिया गया मरहूम को दर्जनों पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हुए मरहूम जहां अच्छे शायर व कवि थे वही एक कामयाब वकील भी थे। आजादी के बाद सीतापुर जिले के इकलौते अधिवक्ता थे जिन्हें बार काउंसिल ऑफ उत्तर प्रदेश का राज्यपाल द्वारा सदस्य नामित किया गया था। मरहूम की पत्नी का देहांत 30 अक्टूबर 1995 को हुआ था तब से वह समाज से कट से गए थे।और उनके बाद और उसके बाद की तमाम शेर व गजलें उनकी याद में कहा जो गमें  रानायें  ग़ज़ल पुस्तक के रूप में संकलित हैं।

तेरी कसम ए शाहिद ए राना इतना कोई नाशाद ना होता। तेरे बदले मैं मर जाता मेरा घर बर्बाद ना होता।

मरहूम के मिजाज में नरमी हमदर्दी नेकी शराफत व खिदमते खल्क का बेशुमार जज्बा था।जिनके नाम से हिंदी सभा,बज्मे समर, बज्मे अशरफ, की ओर से हर वर्ष अन्य शायरों व समाजसेवियों को सम्मानित किया जाता है। और जहां वह अच्छे शायर व अदीब की हैसियत से मोहतरम तो अवाम में शराफत  खुश एखलाकि   गरीब परवरी के लिए मशहूर व मकबूल थे।

दुनिया में आने वाले हर व्यक्ति को यहां से जाना है। कैंसर जैसी गंभीर बीमारी ने उन्हें 28 अक्टूबर 2007 को हमेशा हमेशा के लिए इस दुनिया से निकालकर कब्र के आगोश में सुला दिया आज भी मरहूम के चाहने वाले इनके शागिर्द वरसा और इनके हमदर्द उन्हें याद कर अपने आंसुओं को रोक नहीं पाते है।

इनके भतीजे समीम कौशर सिद्दीकी व पुत्र नैयर सोहेल एवं नैयर सकेब बिसवानी बज्में समर के नाम से एक संस्था का गठन करके उनके अधूरे कार्यो को आगे बढ़ाने का कार्य कर रहे हैं।

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